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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Classics

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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Classics

मिले न मुझको सच्चे मोती

मिले न मुझको सच्चे मोती

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वन शहर गाँवों में ढूँढ़ा मैनें

खोजा सागर – तल की गहराई में

बहुत मिले जन लोग – लुगाई

पर मिले न मुझको सच्चे मोती। 


सिंधु शहर में कोलाहल था

थलचर जलथल में उछल रहे थे

इक – दूसरे को निगल रहे

सगे-संबंधी जीवन से खेल रहे थे। 

निज स्वारथ के मनन का

गठरी दिखी चिंतायें ढोती। 


उलझे – उलझे जीव जनावर थे

चिकनी – चिकनी संवादों में

भागम – भाग दौड़ लगाती थी

समर सिंधु के रहने वालों में। 

खुद अपने में ही खोई थी

हर प्राणी की जीवन – ज्योति। 


खोज रहा था मैं भव-सुदामन से

सुनहली चमकीली नग निकाली

परन्तु सभी पाहन छलिया थी

रूप – रंग से छलने वाली। 

उद्विग्न – घायल आस रह गई

मन सँजोती सपन धीरज खोती। 


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