मिले न मुझको सच्चे मोती
मिले न मुझको सच्चे मोती
वन शहर गाँवों में ढूँढ़ा मैनें
खोजा सागर – तल की गहराई में
बहुत मिले जन लोग – लुगाई
पर मिले न मुझको सच्चे मोती।
सिंधु शहर में कोलाहल था
थलचर जलथल में उछल रहे थे
इक – दूसरे को निगल रहे
सगे-संबंधी जीवन से खेल रहे थे।
निज स्वारथ के मनन का
गठरी दिखी चिंतायें ढोती।
उलझे – उलझे जीव जनावर थे
चिकनी – चिकनी संवादों में
भागम – भाग दौड़ लगाती थी
समर सिंधु के रहने वालों में।
खुद अपने में ही खोई थी
हर प्राणी की जीवन – ज्योति।
खोज रहा था मैं भव-सुदामन से
सुनहली चमकीली नग निकाली
परन्तु सभी पाहन छलिया थी
रूप – रंग से छलने वाली।
उद्विग्न – घायल आस रह गई
मन सँजोती सपन धीरज खोती।
