अलंकृत
अलंकृत
एक दिन में सीमित कैसे होगा अस्तित्व नारी का वृहद्।
अंकों में समेटी जा सके जो वो नहीं है ये ज़िद।
नित गतिमय, पथ पर प्रशस्तनिज त्याग - गृह को समर्पित ।
ना विजेता बनने की होड़ना शीर्ष की चाह मन में अंकित॥
सकुचाता मन,सपने सम्हालेना स्वयं को करना विस्मृत।
संशय मिटा हठ को जगाकरनव आस्था को नित करना जागृत॥
कोइ दिन हो,कोई अवसर संसार इस सार में सज्जित।
अवनी भी डोले, अम्बर भी हर्षितजब नारी इस भू पर हो अलंकृत॥
