श्रृंगार
श्रृंगार
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खूब सज, श्रृंगार कर की
दर्पण को भी ये भान हो ।
बिन झलक तेरी, वो अधूरा
तेरी छवि से उसका मान हो ।।
शक्ति - स्वरूपा, गुण - पांखुडी तुम साधना की लय हो।
संसार सकल तुझ में समाया तेरे अक्षय अस्तित्व की जय हो ।।
सतत - सजग - गतिमान तू हृदय पट पर स्वयं का भी नाम हो।
उर में समेटे सपन अचेत एक प्रहर तो, तेरी ज्योतिर्छवि का विहान हो ।।
वैभव तेरा निर्मल अतलकल्याणी फिर तू मौन क्यों ?
मृदु मुग्धा मनोहारी तू दर्पण में समझे स्वयं को गौण क्यों ?
सजकर-संवरकर हो मुखर तू मिथ्या न तेरा आभार हो ।
नित्य नूतन - नव - रागों से सज्जितवामा तेरा श्रृंगार हो ।।