विजयपथ
विजयपथ
विषाद क्रंदन, करुण स्पंदन
मौन हो जब शिथिल तन
लौह हृदय तब बेड़ी काटे तम की
तारकमय पुलकित हो नयन
निशा से विहान तक
विजयपथ पर अग्रसर रहे
कंटक पथ, शूल की हठ
कालिमा कितनी भी प्रखर रहे
वेग वामन का अजर सिद्ध
तीन पग में नापे जो लोक तीन
चेतना का ओज दीप्तिमान हो
कर अपने चित्त को यूं भयहीन
अभेद्य हो जयदुर्ग कोई
लौ ऊर्जा की अजेय रहे
शक्ति का शौर्य से परिणय
घने तप से विस्फुटित रसधार बहे
निशा से विहान तक
विजयपथ पर अग्रसर रहे
