बदलता वेश परिवेश
बदलता वेश परिवेश
हमारी सभ्यता और संस्कृति का
विश्व भर में था उज्जवल नाम
आज बदल रहा है वेश परिवेश
कहीं गुम हो रही वो रत्नों की खान।
मानवता को भूल गया है मानव
कुसंस्कार कर रहे हैं आक्रमण
परम्परा सदभावना हो रही ध्वस्त
आधुनिकता का फैला है घातक तूफान।
लोभ,मोह,पद, मद में डूबा मानव
भाग रहा दुनिया की आपाधापी में
निज स्वार्थ की मार से उबर न पाता
संवेदनाएं भावनाएं दूषित हैं मन में।
मन संकुचित भावनाएं सिमट रहीं
एक मुस्कराहट को जिन्दगी तरस रही
वन उपवन को हवा विषैली झुलसा रही
सूनी सी लगती है घर आंगन की फुलवारी।
आचरण,चिंतन,सोच बदल रही
श्रेष्ठ शक्तियां कहीं सुप्त हो गईं
ईमानदारी,समझदारी लुप्त हो रही
वक्त का मूल्य समझना भूल गया मानव।