कविता को आज़ाद करो
कविता को आज़ाद करो
इन दिनों कविता जटिल हो गई है..
इतनी जटिल
कि आम आदमी के कान से होकर गुज़रती है
पर मस्तिष्क पर आघात नहीं करती
कवि उसे इतना ठोस बना देना चाहता है
कि उसकी टिकिया
बारिश की फुहारों मे भीग कर भी अपना रंग न छोड़े..
आजकल कविताएँ होतीं है
सिर्फ ड्राइंग रूम मे सज़ाने के लिए
भारी भरकम पांडित्य से भरी हुई..
उसमे तितली के रंग नहीं हैं..
वो अभिशप्त है, आम आदमी से कटी हुई..
उसमे किसान का दर्द होगा, नारी की पीड़ा भी..
<
strong> पर सुनने वाले और सुनाने वाले
दोनों ही बौद्धिक दम्भी कवि...
धरातल पर आओ,
शब्दों को ढूंढो..
जो किसान, मज़दूर, दलित आदिवासियों के शब्द हैं..
भूख, आंसू, तड़प के शब्द..
अनपढ़ अघड..हल्के, नाजुक, टूटे शब्द
पढ़े लिखें शब्दों को दफ़ना दो..ये झूठ बोलतें हैं
सच छुपाते हैं..
आम लोगों को.
कविता से दूर ले जातें हैं
हे परमज्ञानी कवि श्रेष्ठ. ..
कविता को आज़ाद करो।