इश्क
इश्क
इश्क कुछ ओर नहीं
सात्विक भाव की चरम और
शृंगारिक प्रीत है अपनों के प्रति,
शाम की बेला में
दाल रोटी के जुगाड़ की आस में
तरसते दहलीज़ पर खड़े नैराश्य भाव की
कब्र पर नैंनो में प्रेम का दिया जलाते
खाली हाथ लौटे पति के भाल को
चुमना इश्क की आग है !
सिलन भरी टपकती छत को निहारते
लबों पर हंसी की बौछार लिए प्यार जताते
कहना देखो ना ये शीत सी रिमझिम,
मेरे थके तप्त तन पर कभी तुम भी यूँ
बरसो ना इश्क की बारिश ह
ी तो है !
आटे का खाली डिब्बा पकड़ाते
पति को बजाइये ना बोल कर चंद लम्हें
डिब्बे की तान पर पैरों को नृत्य की नवाजिश
देना भी तो इश्क की रंगीनियों का ही एक रंग है
खाली जेब को टटोल रहे हाथों में
साड़ी की गड़ी के नीचे से निकाली,
टूटने की कगार पर खड़ी सौ रुपये की
नोट चुपके से थमा देना
इन्तहां ही तो है इश्क की !
ज़िंदगी की आपाधापी से निढ़ाल
एक दूसरे को आँखों से "क्या तुम भी,
मैं हूँ ना" जताना परिभाषा ही तो है इश्क की।