नारी
नारी
गंतव्य की तलाश में टुकड़े टुकड़े होती रही
हर जख्म जो उसने दिया
रिसता रहा रक्त बन कभी
नारी को तुमने ये सोच कर
कुचला की ये अबला है तो
कर सकती नहीं कुछ अपने लिए
सोचा नहीं गर ठान ले तो
आगे टिक न सकता कोई
नारी मोम बन जलती है तो
सब कुछ जलाना जानती है
पीड़ा सहन करती है तबतक
आक्रोश दिल में भरता न जबतक
रिसते हुए रक्त देख कर
जख्मों की गिनती करती नहीं
तलाशती है मंज़िल अपनी
भूलभुलैया बन जो दिखती नहीं
गंतव्य की तलाश में
टुकड़े टुकड़े होती रही
ज़ख्मों को रिसते देख देख
बढ़ती रही रुकती नहीं।