काहे रे मन
काहे रे मन
काहे रे मन सोचे, इतना,
हर ज़िन्दगी इक दास्तान बने, यह ज़रूरी तो नहीं,
कुछ कहानियाँ, वक्त के पहलू में दबी रह जातीं हैं,
कुछ ख़्वाब, नींद में सच्च, और आंख खुलते ही, ओझल भी जाते हैं,
दर्द हसाता है कभी, कभी खुशी भी रुला देती है,
हर मरहम असर करे, यह ज़रूरी तो नहीं,
काहे रे मन सोचे, इतना,
यह ज़िन्दगी है, कोई फसाना नही,
हर सोच को हकीकत का अक्स दिखे यह ज़रूरी तो नहीं,
किताब के कुछ पन्ने खाली भी रह जातें ही,
हर वर्क काली या रंगीन स्याही से हो लिखा यह ज़रूरी तो नहीं,
काहे रे मन सोचे, इतना,
यह ज़िन्दगी इक सफ़र है, बस,
मंज़िल भी हो, यह ज़रूरी तो नहीं।।
