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Gagandeep Singh Bharara

Abstract Drama Classics

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Gagandeep Singh Bharara

Abstract Drama Classics

सीखी जो ज़िन्दगी की लिखाई

सीखी जो ज़िन्दगी की लिखाई

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सीखी जो ज़िन्दगी की लिखाई,

तो मैंने भी अपनी इक दुनिया सजाई,

कुछ खुशियों के रंग भरे,

कुछ ग़मों की सौगातें आईं,


हर पल पे जीना चाहा मैंने,

कभी काली घटा भी छाई,

रिश्तों से मैंने नाता जोड़ा,

कुछ साथ चले, कुछ ने की रहनुमाई,


कभी हंस के, कभी रो कर भी देखा,

कभी यारों संग खिल्ली भी उड़ाई,

कितना चाहा वक़्त यूँ थम जाए,

मगर सियाही थी जो रुक ना पाई,


कभी होश में दुनिया के लिए सोचा,

कभी मोहब्बत में बेहोशी छाई,

माँ के हाथों का स्वाद चखा,

कभी पिता की डाँट भी खाई,


कभी हौंसले की उड़ान भरी,

कभी सामने थी वो गहरी खाई,

गिरता पड़ता बस लिखता गया,

जब तक थी ज़िन्दगी की सियाही,


जब तक थी जिन्दगी की सियाही….

सीखी जो ज़िन्दगी की लिखाई,

तो मैंने भी अपनी इक दुनिया सजाई।।


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