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वो सुबह की चाय

वो सुबह की चाय

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वो आज फिर उठी है अनमनी-सी

एक नए दिन की शुरुआत को,

फिर से कुछ अरमान संजोने को

फिर सारे सुप्त रिश्ते जगाने को।


गैस पर चढ़ा दी है चाय यह सोच

कि आज तो महका ही दूँगी कुछ,

नए एहसास प्यार भरे दिलों में

अच्छे-अच्छे नए व्यंजनों के साथ।


फिर गलतफहमी भी पोंछ दूँगी

खिड़कियों दरवाजों पर जम रही

धूल-मिट्टी की परत हटाते समय ही,

धो डालूंगी सब गिले शिकवे भी

कपड़ों को जोर-जोर से कूटकर।


सेवा से बड़ों की गिरा दूँगी सब

गलतफहमियों की दीवारों को मैं,

जीत लूँगी दिल पिया का भी उठा

प्रेमिका की तरह नाज नखरे सब।


पर यह क्या! सब कुछ गया उबल

गैस पर रखी चाय की तरह ही,

छलक गया है बर्तन से बाहर ही

न जाने कब यूँ ही बेध्यानी में।

पता नहीं कब तक उबलती रहेगी

चाय भी उसके अरमानों की तरह।।


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