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मैं तो था ही नहीं

मैं तो था ही नहीं

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बचपन से लेकर जवानी तक हम यूँ ही खेलकर आगे बढ़ते रहे,

कभी किस्सों तो कभी किताबों में उलझते रहे,

ख्याल आया तभी खेलते हुए अपना और ज़िन्दगी का,

तो फिर अपने आपकी ही यूँ तलाश करने लग गये|


मैं कौन हूँ... बस जैसे कान में गूंजने लग गया,

वेद पुराण पुस्तकें सब खोजे, दिल की प्यास फिर भी न बुझे; 

कभी चाँद कभी तारों से, तो कभी बहती हुई नदियों से; 

अपना ही परिचय पूछने लग गये|


मैं कौन हूँ ...

कुदरत भी हमारी नादानी को समझ के हँसने लग गयी,

तभी मिला जैसे गुरु आधारा, सारा षडयंत्र जैसे गुरु तोड़ा; 

प्रकृति ने जैसे खुद दरवाज़ा खोला, जैसे ख़ुदा धरती पे उतरा; 

कुदरत मानो कि एकाएक जवाब देने लगी, कि तू है मेरा ही एक हिस्सा;

खुदको क्यों मुझसे अलग समझने लग गया,

गौरव तो है ही नहीं तू खुदा कह या कुदरत कहे,

सारे रंग रूप, नाम भेद को रचती; 

प्रेम आधार से सृष्टि रचती, जो जाने वो पाए पारा;

मैं जान जान के पाया पारा, लगी हँसी अब न रुकती;

तबसे बस मैं यूँ ही हँसता और गुनगुनाता चला गया|


जो था वो ख़ुदा था, जो है खुदा है; 

जो रहेगा वहीं का वहीं... पूर्ण का पूर्ण 

मैं तो था ही नहीं... मैं तो था ही नहीं| 



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