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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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जीते हैं शान से

जीते हैं शान से

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ये दुनिया बहुरंगी है जनाब

जिसमें हम सब उलझे हुए हैं,

सच कहें तो जो जितने अपने हैं

उतने ही वो पराए हैं।

हम सब इसी उहापोह में जीते हैं,

जीते क्या हैं अपने पराए की चादर

सीते और उधेड़ते हैं।

अब आप कहोगे कि हम जीते हैं,

पर आप शायद भूल रहे हैं

कि हम ही नहीं आप भी बड़े भ्रम हैं।

कोई जीता नहीं किसी के लिए

यहां तक कि अपने लिए भी नहीं,

सब ढोते हैं खुद को मजदूर की तरह

सिर पर लदे बोझ तरह।

और भेद करते रहते हैं

अपने और पराए का,

जो कि कोई है ही नहीं

सिवाय मृग मरीचिका के,

जैसे ये जीवन है 

महज पानी का एक बुलबुला।

जिसे हम आप सब जानते हैं

मगर मानते कब हैं

और माने भी तो क्यों

क्योंकि हम सब भ्रमित जो हैं

खुद को मालिक समझते हैं

और इसी भ्रम में रहते हैं,

और कब अलविदा कह गए दुनिया को

न खुद जान पाते हैं,

और न ही दुनिया को बता पाते हैं,

एक पल पहले तक भी हम 

भ्रम का शिकार बने रहते हैं

कहते रहे हम तो शहंशाह जनाब

और जीते हैं बड़े शान से।



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