!! ख़ुद को खत !!
!! ख़ुद को खत !!


उलझनों का सिलसिला बस उलझता रहा
यादों के झरोखों से देखता भी रहा
कभी चुप रह गया
कभी गलत बोल गया
कभी समझ ना सका
कभी समझा ना सका
उत्सुकता और भावना के टकराव में
अनगिनत मोच आई खुदगर्ज सोच में
भटकता रहा ठह़राव की तलाश में
जमाना गुजर गया बदलाव की चाह में
न मैं बदला, न ही मैं मैं रहा
सपनों की चारदीवारी में
खुद से खुद को ढूंढता रहा
थक हार, बोझिल मन व्यथित तन लिए
खुद को जब खत लिखने लगा
खुशियां कम शिकायतें खूब थी
ढूंढता रह गया सही पता
प्रेषक और प्रेषित का
बालक, किशोर और वयस्क
तीनो चाहते प्रेषक बनना
अपने मन की कहना
उलझन का नया विस्तार
खुद को खत लिखना भी दुश्वार !!