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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

Abstract

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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

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अनोखी रंग डगर

अनोखी रंग डगर

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होली तबतक होली ना होती

जबतक सबकी पसंद पूरी ना होती

सबको रहता अधीर इंतजार

हो चाहे बच्चा बूढ़ा या जवान

खुला मौन निमंत्रण देती

नैसर्गिक सौन्दर्य की बसंती मादकता

कठिन होता विभेद करना 

उच्छृंखलता और ठिठोली में

कितने बंधन टूटते हमजोली में

निबंध हो जाती 

बरसाना और अवध भी होली में

भोले भी खेलते होली काशी में

भस्म रंग लपेटे गले में गरल पिचकारी

रंगों में रंग यों घुल मिल जाते

किसी की राधा किसी की गोपी किसी की हो ली

नंद यशोदा भी हो जाते भ्रमित

सब रंग मिल विलग अंतरंग हुए

ना राधा गोरी रही ना कृष्ण काला रहा 

चुटकी भर प्रेम रंग डार देख

सब रंग के छीटे उड़े इधर उधर

बच बचा के जाऊं किस डगर

बने शायद इस होली में

कोई अनोखी रंग डगर।।


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