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Gaurav Khandelwal

Classics Inspirational

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Gaurav Khandelwal

Classics Inspirational

मैं तो था ही नहीं

मैं तो था ही नहीं

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बचपन से लेकर जवानी तक,

हम यूँ ही खेलकर आगे बढ़ते रहे,

कभी किस्सों तो कभी किताबों में उलझते रहे,

ख्याल आया तभी खेलते हुए अपना और जिन्दगी का

तो फिर अपने आपकी ही यूँ तलाश करने लग गये,

मैं कौन हूँ ... बस जैसे कान में गूंजने लग गया।


वेद पुराण पुस्तकें सब खोजे,

दिल की प्यास फिर भी न बुझे, 

कभी चाँद कभी तारों से,

तो कभी बहती हुई नदियों से

अपना ही परिचय पूछने लग गये,

कुदरत भी हमारी नादानी को

समझ के हँसने लग गयी।


तभी मिला जैसे गुरु आधारा,

सारा षडयंत्र जैसे गुरु तोड़ा, 

प्रकृति ने जैसे खुद दरवाज़ा खोला

जैसे खुदा धरती पे उतरा, 

कुदरत मानो कि एकाएक जवाब देने लगी,

कि तू है मेरा ही एक हिस्सा

खुदको क्यों मुझसे अलग समझने लग गया।


गौरव तो है ही नहीं

तू खुदा कह या कुदरत कहे,

सारे रंग रूप, नाम भेद को रचती; 

प्रेम आधार से सृष्टि रचती,

जो जाने वो पाए पारा,

मैं जान-जान के पाया पारा,

लगी हँसी अब न रुकती,

तबसे बस मैं यूँ ही हँसता

और गुनगुनाता चला गया।


जो था वो खुदा था, जो है खुदा है; 

जो रहेगा वही का वही...पूर्ण का पूर्ण 

मैं तो था ही नहीं ... मैं तो था ही नहीं। 


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