विचित्र आत्मिकता
विचित्र आत्मिकता
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मैं तुम्हें प्रतिदिन पुकारती हूँ,
नित्य प्रति आलिंगन करती हूँ तुम्हारे अस्तित्व को,
तुमसे मौन वार्ता भी करती हूँ,
किंतु जब तुम प्रत्यक्ष आते हो,
तो मैं अपने पग पीछे खींच लेती हूँ,
नहीं करती प्रदर्शित अपने अथाह प्रेम को,
तुम कहते हो मैं विचित्र हूँ,
मैं कहती हूँ, मैं आत्मिक हूँ,
और मेरा यह रूप तुम्हारे लिए विचित्र ही रहे तो
मेरा प्रेम सफल रहेगा।
जिस घड़ी मेरी विचित्रता की आत्मिकता को तुम समझ गए,
उस घड़ी तुम मुझे सदैव के लिये प्राप्त हो जाओगे,
और यही मेरे प्रेम की सबसे बड़ी असफलता होगी।