मां का दर्द
मां का दर्द
अक्सर बच्चे बड़े होकर अपने अपने कामों में व्यस्त रहने लगते हैं, उन्हें अपने मां का तनिक भी ख्याल नहीं रहता, वो क्या चाहती हैं इस बात का ध्यान नहीं रहता, बस खुद में अपनी एक नई जिंदगी बना लेते हैं और मां बस इसी उम्मीद में रहती है कि उसके बच्चे फिर उसे गले लगा ले उससे ढेर सारी बात करे पर अफसोस बच्चे बदल गए क्यों कि वो बड़े हो गए ........
मैं क्या लिखूं
मैं क्या कहूं,
कुछ समझ नहीं आता,
जज्बातों की पोटली
जो जेहन में अटकी है
आंसुओं से लिपटी है,
एक टीस बन
दिल को दर्द देती है,
जब मां को
यूं खामोश देखता हूं
जो एक कोने में दुबकी
खुद में मायूस
हतप्रद बैठी
बस निहारती,
टुकर टुकर देखती
इधर उधर अपनों को,
फिर सिमट जाती है
अपने ही दायरे में अक्सर.......!
वो बहुत कुछ कहना चाहती है
पर न जाने
क्यों इतनी दूरियां सी हो गई है
आखिर ये मजबूरियां और बेबसी क्यों ?
क्यों सब पास होकर भी अनजान हैं
अपने अपने दायरों में कैद परेशान हैं,
एक अनजाना सा दर्द
नश्तर बन रोज चुभता है,
अपनों की
खामोश निगाहों से डर लगता है,
पास होकर भी
सब क्यों दूर लगते हैं,
खुद में
इतने मशगूल क्यों दिखते हैं,
बात हो घड़ी दो घड़ी
तो सांस आए,
कोई पास आकर
"मां"
पुकारे तो दिल भर आए,
पर सब बड़े हो गए
अपनी अपनी दुनिया में खो गए,
और बूढ़ी मां
जिस्म उसका अब निढाल है....!
बस चंद वक्त की राह में बैठा है,
खामोशियां चीरती है
उसके कानों को,
आंखें डब डबाती हैं
नहीं रोक पाती बहते आंसुओं को...!
बेचैन हो रो पड़ती है
पुराने यादों के साए में अक्सर......!
वो जिंदा है
बस वही जानती है,
घुटती है रोज
सुबह से शाम तक
किसी अपने की एक आहट के लिए.......!
पर दूर तक
सन्नाटा पसरा है,
कोई खबर नहीं
कोई संवाद नहीं,
कोई पहली जैसी
मां के लिए पुकार भी नहीं,
बस सूनापन आंखों में छाया है
और वो
फिर भी जी रही है
अपनों के आने की उम्मीद में
बिना कुछ कहे
खामोश से........!
