क्यों होता परेशान।
क्यों होता परेशान।
जब जब सुधि आई तुम्हारी, छलक गए तब नैन हमारे।
हृदय व्याकुल बन तड़प उठा, फिर भी हो न सके दीदार तुम्हारे।।
कृपा अहैतुकी तुम सब पर करते, मन फिर भी है परेशान।
नैया मेरी अब तुम्हारे हवाले, मझधार बीच फंसी है जान।।
क्यों होता परेशान, रे मन ! क्यों होता परेशान।।1।।
राग, द्वेष में पड़कर तूने, परनिंदा को है अपनाया।
आत्म चिंतन का समय न मिलता, दूसरों पर है धौंस जमाया।।
ज्ञान की पोथी तेरे काम न आयी, फिर भी देता सबको ज्ञान।
दुनिया की चिंता तू क्यों करता, मिटा दे अपना अभिमान।।
क्यों होता परेशान, रे मन ! क्यों होता परेशान।।2।।
बाहरी आडंबर तूने खूब बनाया, अंतर में है शैतान।
एक बार अंतर तो झांक, फिर होगा तब असली ज्ञान।।
जो भी चलता सत मार्ग पथ पर, मिलता उसको सम्मान।
गुरु वचनों का मान तुम रखना, रखते सबका वे ध्यान।।
क्यों होता परेशान, रे मन ! क्यों होता परेशान।।3।।
समर्थ गुरु का दरबार अनोखा, जिसको देवता भी तरसते हैं।
जो भी आता इस पावन दर पर, बिन मांगे ही सब कुछ देते हैं।।
बनाना, बिगाड़ना उनकी है मर्जी, प्रभु भी रखते गुरु का मान।
भूले-भटकों को राह दिखलाते, गुरु करते पूर्ण निदान।।
क्यों होता परेशान, रे मन ! क्यों होता परेशान।।4।।
जब-जब धर्म की होती हानि,
सकल संसार करता मनमानी।
प्रभु भेजते नर रूप में गुरु को, जो कहलाते ब्रह्म ज्ञानी।।
मुक्ति, भक्ति का ज्ञान हैं देते, पल भर में करते समाधान।
मौका फिर न तुमको मिलेगा, कर लो- कर लो उनका तुम ध्यान।।
क्यों होता परेशान, रे मन ! क्यों होता परेशान।।5।।
सत, रज, तम का सकल पसारा, इनके प्रभाव से कोई न छूटा।
जिसने भी की सत्संग की संगत,
आत्मज्ञान का अंकुर फूटा।।
प्रेममई दुनिया उसको तब लगती, देखता सबको एक समान।
नैया पार उसकी है होती, जो देखते गुरु, प्रभु समान।।
क्यों होता परेशान, रे मन ! क्यों होता परेशान।।6।।
कर्म, अकर्म फिर उसको नहीं भाता, शुभ-अशुभ का भान नहीं।
छोड़ देता सब कुछ उन पर, गुरु समान कोई भगवान नहीं।।
शुद्ध, सरल जीवन तब होगा, गुरु का जो करते सम्मान।
"नीरज" का जीवन तो धन्य हो गया, गुरु मिले जिसे प्रभु समान।।
क्यों होता परेशान, रे मन ! क्यों होता परेशान।।7।।