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shristi dubey

Abstract

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shristi dubey

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पुरुष प्रधान समाज

पुरुष प्रधान समाज

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आओ एक अफसाना मेरा भी सुन लो...जन्म लिया जब कन्या ने तो 

परिवार ने बोला उसको बोझ

कभी सांस तोड़नी चाही उसकी

कभी फेंक दिया कूड़े की ओर

क्या ये समाज एक लड़की को कभी मन से अपना पायेगा ?

या यूं ही पुरुष प्रधान समाज चलता रह जाएगा?


एक एक दाने को तरसी वो

भूख प्यास में जाने कहाँ कहाँ भटकी वो

भीख माँग जब बड़ी हुई 

टुकड़ों की याद दिलाई गई

बोझ बोझ कह कह कर घर में ही हथियार बनाई गई

बस एक लड़की हो ये बात याद दिलाई गई

क्या ये समाज एक लड़की को इंसान समझ पायेगा ?

या यूं ही पुरुष प्रधान समाज चलता रह जाएगा?


जब हुआ घर में एक लड़का हर राह मिठाई

बटवाई गई 

औलाद के नाम पर उसकी हर बात पर मोहर लगाई गई

जब बात आई सपनों की तो उँचाई तक की राह दिखाई गई

पर बेटी के हक़ में फिर से लड़की होने का दाग लगाई गई

क्या एक समाज कभी लड़का और लड़की को बराबर मान पायेगा ?

या यूं ही पुरुष प्रधान समाज चलता रह जाएगा?


एक समय आया फर्ज निभाने का बेटे से आस लगाई गई 

पर उस बेटे ने मुंह मोड़ लिया और लड़की ने अपने टुकड़ों का फ़र्ज़ अदा किया

एक ऐसा रास्ता मिला उसे जिस राह उसे चलना ना था

पर परिवार की मजबूरी ने उस लड़की को बाजार किया

हां पेट भरा परिवार का उसने खुद को कहीं मार दिया

जब मांगी भीख इज्ज़त की तो सरे राह उसको बदनाम किया

क्या उस लड़की को अपनी इज्ज़त वापिस मिल पाएगी?

या ये पुरुष समाज में औरत होने का दाग यूँ ही रह जाएगी ?


उस लड़की का नाम अदीना था और पवित्र उसका मन

पर शरीर को अपवित्र बोल कर कहीं मार दिया

था उसका मन

किसी समाज ने ये पूछा नहीं उससे कि ये राह भला उसने चुनी क्यूँ?

परिवार के शानो शौकत में कहीं डूब गया उसका पवित्र मन 

पर पुरुष प्रधान समाज में मिली ना उसको एक ख़ुशी 

क्या फिर से एक अदीना आएगी या मिलेगा उसको उसका धन ?

एक औरत क्या खुद के लिए कभी लड़ पाएगी?

क्या इस समाज की गाड़ी एक औरत के बिना चल पाएगी ?


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