स्त्री
स्त्री
हुस्न पर्दे से छुपाए बैठी है वो
शर्म आंखो में सजाए बैठी है वो
लबों पर मुस्कान उसके
इंतज़ार के पलों में ख़्वाब उसके सवारें बैठी है वो
घर छोड़ के वो अपना पराए घर आ बैठी है वो
या यूं कहो कि एक पराए घर को छोड़
दूसरे घर में पराई बन बैठी है वो
सपने तो बहुत थे आखों में उसकी
पर जिम्मेदारियों की सोच में खो गई वो
उम्मीदें बहुत सी है परिवार को उससे
कि हर रिश्ते निभा पाएगी वो
कहीं भूल चुकी खुद को वो
क्या फिर से खुद के लिए लड़ना सीख पाएगी वो ?