स्त्री हो तुम
स्त्री हो तुम
कभी हवाओं सा बहना चाहती हो
कभी नदियों सा बहना चाहती हो
कभी मौन लफ्ज़ लिए
आँखों से सब कुछ कहना चाहती हो
कभी तो बताओ अर्धांगिनी आखिर क्या क्या करना चाहती हो
कभी सासु मां के ताने सुन
बस मुस्कुरा कर रह जाती हो
कभी हमारी एक बहस में
तुम अपना तांडव रूप दिखाती हो
जो लफ्ज़ अभी तक मौन थे
अब शोर मचा कर जताती हो
अर्धांगिनी हो मेरी पता है मुझे
कभी ये भी तो बताओ तुम स्त्री कब बनना चाहती हो
कभी मां-बाप के छांव में पली बढ़ी
भैया की लाडली रही हो तुम
आज देवर पर भाभी का हक़ जमा कर
ससुर की आज्ञाकारी बहु बनकर
क्यूँ खुद को भूल जाना चाहती हो तुम
जब बारी आई एक माँ का फ़र्ज़ निभाने की
तो प्रेम रूप भी दिखा दिया
हर बात पर शांत और बस अपने बच्चे के मोह में
सागर सा विस्तार प्रेम झलकाती हो
हाँ अब रूठ जाती हो खुद से
और खुद को मना लेती हो
हर बार अपने सपनों के आगे
दूसरों के सपनों को जीती जाती हो
माना कभी बेटी, कभी बहन कभी घर कि शान
कभी बहु बनकर मर्यादा में रहना जानती हो
अब माँ बनकर बस प्रेम लुटाना जानती हो
पर जो ख्वाब तुमने सजाये कभी
जिस लगन से अपने कदम तुमने बढ़ाये कभी
जो आग थी तुम्हारे मन में
क्यों अब सब भूल तुम
खुद को भूल जाना चाहती हो
याद करो स्त्री हो तुम
जब नया जीवन देना जानती हो
तो खुद के सपनों को नई उड़ान देने में क्यों खुद को भूल जाती हो तुम।
