हलधर नाग
हलधर नाग
निर्धन कुल में जन्म मिला था, बाधा सभी मिटानी थी।
नीरस जीवन में अपने अब, सरिता सरस बहानी थी।
वर्ष उन्नीस सौ पचास में, तन बरगढ़ में पाया था।
लख निज घर में मुख बालक का, सारा कुल हर्षाया था।।
निर्धनता के गहन पंक में, पंकज उसे खिलाना था।
बाधा बंधन अपने काटकर, जीवन उसे सजाना था।
विद्या के मंदिर में जाकर, विद्या उसको पानी थी।
अपने जीवन की सुंदरतम, कथा उसे रचानी थी।।
हलधर नाग तीन पढ़ पाया, घना अँधेरा फिर छाया।
दस वर्षों की ही थी अवस्था, उठा पिता का था साया।
लग गया वह बर्तन धोने में, रोटी भी तो खानी थी।
ज्ञानवृक्ष का बीज उर धरा, रचना नवल रचानी थी।।
सोलह वर्षों तक हलधर ने, भोजन में इल्म बिखेरा था।
कर्ज लिए फिर हजार रुपए, कारज नया जमाना था।
'ढोडो बरगाछ' रची फिर थी,जगत को जो सुनानी थी।
लोगों का मन जीत लिया था, लिखनी नई कहानी थी।।
महाकाव्य अनेक रच डाले, 'लोक कवि रत्न' कहलाए।
साहित्य सृजन की ताकत से, उपाधि डॉक्टर* की पाए।
दे दिया 'पद्मश्री'° भारत ने, ज्ञान की शान बढ़ानी थी।
हलधर के जीवन की अद्भुत, अब तक यही कहानी थी।।
