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DRx. Rani Sah

Abstract

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DRx. Rani Sah

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स्टेशन का सफ़र

स्टेशन का सफ़र

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730

स्टेशन जहाँ रेल की सवारी है , 

जहाँ से गुजरते सैकड़ो मुसाफ़िर हैं , 

कहीं चाय की स्टाल कहीं किताबों की कहीं फलों की दुकान है , 

किसी के हाथों में अख़बार, 

किसी के कंधो पर उनका चलता फिरता व्यापार, 

कोई ब्रिज के नीचे बैठा, 

कोई ट्रेन के पीछे दौड़ता, 

सुंदर पालिश किए पत्थरों से स्टेशन सजा है , 

कोई ग़रीब घर समझ कर स्टेशन पर रहता है , 

अच्छी खासी सरकारी सुविधा लाइट फैन पानी का नल लगा, 

कचड़ा फेकने के लिए साफ सुथरा कुड़ादान रहता, 

कुछ लोग दबे पाँव चमचमाते जूतों के साथ, 

कुछ नंगे पांव ही संभल कर चलते है , 

कोई पसीने से लतपत कुछ महँगी ट्राली खींचते है , 

कुछ शांत स्वभाव के कुछ अकारण चीखते है , 

कुछ थूक फेकते स्टेशन पर जबकि निषेध का साइन बोर्ड अपने सामने देखते हैं , 

कोई बच्चा खुशी खुशी अपने माँ का हाथ पकड़ घूमने निकलता, 

किसी का बाप गोद में उठाये मनचाही चीज़ खरीद देता, 

वही स्टेशन के किसी कोने में बैठा कोई बच्चा चंद प्यार को तरसता, 

ये सब मैं स्टेशन पर बैठे देख रहा था, 

जिस रोज़ मेरी ट्रेन लेट बड़ी थी

मन में शिकायत आँखों में क्रोध पनप रहा था, 

जब सीनियर सिटीजन की सीट पर एक हट्टा कट्टा बंदा तन कर बैठा था, 

स्टेशन के हर पहलू से उस रोज रूबरू हुआ था, 

कोई हँसते मुस्कुराते और कोई बेसुध पड़ा था, 

सब कुछ मेरी नजरों में कैद हुआ था, 

ग़रीबी लाचारी मजबूरी उस रोज़ और अच्छे से समझा था, 

स्टेशन के शोर गुल में उस भीड़ वाली महफ़िल में, 

कैसे कोई तन्हा था, 

दर्द समेटे अपने अंदर फिर भी खुलकर जी रहा था, 

चंद घंटो के मेरे इंतज़ार ने, 

सबक सिखा दिया अच्छे बुरे हाल के, 

स्टेशन पर उपस्थित हर इंसान की अजीब रफ़्तार थी, 

प्रेम प्रसंग कुछ नहीं सबकी नज़र में इंसानियत बेकार थी, 

किसी गिरे को उठाने कोई आगे नहीं आया, 

देखकर इस आलम को मेरा दिल भर आया, 

हाँ उस रोज़ स्टेशन पर बैठा रहा, 

कहीं ना जाकर भी ज़िंदगी का सफ़र किया, 

बहुत कुछ देखा बहुत कुछ सुना बहुत कुछ जाना था, 

बिना पैसे का था ये सफ़र पर सबका महंगा निकला, 

हाँ उस रोज़ आधे घंटे में आने वाली ट्रेन के इंतेज़ार में, 

मैं जाने क्यों बहुत देर तक बैठा रहा, 

एक सबक समेटे अपने जहन में मैं चुप चाप ही चल पड़ा। 



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