परिंदा मुझको बता कर गया
परिंदा मुझको बता कर गया
मैं एक रोज
खिड़की के पास बैठा था,
ख़ुद से नाराज़
जाने किन बातों से रूठा था,
मेरी आँखों में बेबसी
ओंठो पर खामोशी
हर बात पर इंकार
जीत की खाब सजाए
लिए बैठा था हार..!
फ़िर एक परिंदा
मुझे दिखा था,
मेरा सारा ध्यान उसने
अपनी ओर खींचा था..!
उस परिंदे के पर में
चोट लगी थी,
फ़िर भी मुस्कुराते हुए
उसने अपनी उड़ान भरी थी,
शायद ऊँची उड़ानों का शौकीन था
जोश से भरपूर
बेहद रंगीन था,
मन में उम्मीद ज्यादा
अंनत उड़ने का इरादा..!
आसमान को छूना चाहा था,
मग़र ज़ख़्म इतना गहरा था,
थोड़ा उड़ कर
उसी टहनी पर आ ठहरा था..!
परिंदे के चोट से खून निकल रहा था
पर किसी ख्याल में खोया
हर बार गिर कर भी सम्भल रहा था.!
उसकी हर कोशिश में
मैंने जीत देखी ,
ऊँची उड़ान के प्रति
गज़ब की प्रीत देखी..!
एक जज़्बा देखा
जो तकलीफ़ों से बड़ा था,
हर बार
पहली बार से
थोड़ा ऊँचा वो उड़ रहा था..!
अपनी चाहत को
पाने के लिए,
खुले ऊँचे आसमान में
पंख पसारने के लिए,
क्या ख़ूब कला आज़माई
आसमान से ज्यादा कर दिया
अपने हौसलों की ऊँचाई..!
इस बार फडफड़ाते हुए ही सही,
परिंदा अपनी मज़िल की ओर उड़ गया,
देखकर मैं सोच में पड़ गया,
पल भर के लिए
ख़ुद के अंदर उतर गया,
एक परिंदा
कितना कुछ मुझको बता कर गया..!