ग़ज़ल
ग़ज़ल
सूरज ढल जाए तो क्या, अँधेरों के ख़िलाफ़ तारे चमकते हैं।
आग अगर बुझ भी जाए तो क्या, राख़ में अँगारे सुलगते हैं।
मुझसे ही बग़ावत करने लगे, मेरा फ़न मुझसे सीखकर वो,
ख़ुदको होशियार मानते हैं, हम उनको कमज़र्फ़ समझते हैं।
कल जिसने राह दिखाई, चलने का सलीक़ा सिखाया जिसे,
बेहया हो गए शागिर्द, आज आँख मिलाकर बात करते हैं।
चले आँधियाँ, छाजाएँ काली घटाएँ और चमके बिजलियाँ,
आसमान में जो बादल गरजते हैं, वो भला कब बरसते हैं।
'तनहा' खड़ा हूँ, सारे ज़माने के ख़िलाफ़ इस सच के ख़ातिर,
जो शजर जड़ें गहरी रखते हैं वो हवाओं से कहाँ उखड़ते हैं।