ज़ुल्फ़ें
ज़ुल्फ़ें
जब जब अपने
ज़ुल्फ़ों को सुखाती हूँ
उनकी गुफ़्तगू में
तुम्हें सुनती ही हूँ
एक मैं ही नहीं
तुम बिन सहमी सी
तुम्हारे उँगलियों का सहलाना
ये ज़ुल्फ़ें भी याद करती हैं
जब जब मैं
आईने से मिलती हूँ
उसके सवालों से
बेज़ुबान बन जाती हूँ
इतने शिद्दत के
बाद भी
इन ज़ुल्फ़ों का संवरना
अधूरा सा क्यों लगता है
इनका गहरा रंग
फीका फीका लगता है
मुलायम परत भी
रूखी रूखी लगती है
तुम बिन चमक में
मुस्कुराहट की कमी सी
इन ज़ुल्फ़ों का लहराना
बड़ा बेजान सा लगता है।