दुनियाँ दिखावा
दुनियाँ दिखावा
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लगता हैं के बीत चुका हैं वो ज़माना मासूमियत का,
लोगों के सिर पर चढ़ा हैं नशा दिखावट की शराब का।
होती हैं मुस्कुराहट भी बनावटी, आँसू भी बहकावा,
पैसों की चकाचौंध से फैला हैं ढकोसला रूबाब का।
बड़ा नाज़ हैं जिन्हें अपने खुलकर जीने की ज़िंदादिली पर,
चुकाना पड़ता हैं उन्हें भुगतान सच्चाई के हिसाब का।
दुनियादारी के बाज़ार में गिरवी रखकर आशियाँ ख़्वाबों का,
गुज़र-बसर के लिए मज़बूरन लेना पड़ता हैं सहारा नक़ाब का।
