भरम
भरम
घने बादलों से झाॅंकती तुम्हारी साँवली सूरत
हसीं वादियों से लुका-छिपी खेलती वो छाया
हरे-भरे पहाड़ों में गूॅंजती दिलकश आवाज़
सर्द-हवाओं से झुरझुरी सी वहीं गुलाबी छुअन
ये सुहाना समा, तुम्हारा मेरे साथ ना होना भी,
आस-पास होने का एहसास था दिला रहा।
ख़ुदा के पाक-दामन सा यह रूहानी आलम
जन्नत से भी ख़ूबसूरत क़ुदरत की कारीगरी
इस सफ़र को बना रहीं थी और भी रूमानी।
मगर *बदलता मौसम* तो,..
दोनों ही तरफ़ से बरपाता है क़हर,
ढलती शाम की मदहोशी से
फिर ले आता है होश-हवास में।
सर्द-रातें नींदों को उड़ा कर, गुज़र गई करवटों में
घटाएँ छुप जाते ही, कई अरमान गए सिमट
प्यार की परछाइयाँ समा गई अंधेरे में
चाहतें दिल की दिल में ही होने लगी दफ़न
बहारें सपनों को बाँहों में लिए गुमनाम सी
ओस की बूँदे सूखते ही, बह गया भरम का कोहरा भी।
सुबह होते जब धूप ने जगाया धुंध से,
तब आने लगा सब कुछ बिलकुल साफ़ नज़र।
के मेरी दुनिया में तुम "यूँ" कहीं नहीं हो,
हो तो बस!, तन्हाइयों में और तसव्वुर में!!!
