ग़ज़ल
ग़ज़ल
तुझसे गर प्यार में मेरी न लड़ाई होती।
मैंने उल्फ़त की हर इक रस्म निभाई होती।
ज़िंदगी मौत न बनती न जुदाई होती,
या ख़ुदा तूने मुहब्बत न बनाई होती।
उम्र भर आरज़ू ये ही तो रही थी मेरी,
काश एक बार तो मिलने को तू आई होती।
कोई भी बात छुपाई नही थी मैंने कभी,
काश तूने भी हर इक बात बताई होती।
बात ही बात पे लड़ने में लगा रहता तू,
प्यार की काश कभी गङ्गा बहाई होती।
क़ल्ब का दर्द मेरा और न बढ़ पाता गर,
तू दवा, तू ही दुआ, तू ही शिफ़ाई होती
ख़्वाहिशों की ये कहानी भी "कमल" कहती है,
मेरी बाहों में सिमट के तू समाई होती।