ग़ज़ल
ग़ज़ल
सूख चुका आँखों का दरिया और नहीं यह बह सकता
दर्द सहा इतना जीवन में और नहीं अब सह सकता
नहीं इबादत करनी आती मगर मुहब्बत सीखी है
इसीलिए अब मुझे ख़ुदा भी काफ़िर तो नहीं कह सकता
दोषी को चाहे जैसी तुम, सज़ा दिलाओ हर्ज नहीं
निर्दोषों पर ज़ुल्म हुआ तो क़लम नहीं चुप रह सकता
हाथ बढ़ा कर देखो यारों, साथ हमेशा पाओगे
दुःख में सच्चा दोस्त तुम्हारा पीछे तो नहीं रह सकता
नफ़रत की दीमक को मिलकर साफ़ करेंगे आज कमल
है मजबूत महल ये प्यार का यूं ही नहीं यह ढह सकता।