ग़ज़ल
ग़ज़ल
क़दम अपने बढ़ाकर मंजिलों को पाती जाती है
हर इक मुश्किल को अपने तेज़ से महिला हराती है
जरूरत मुल्क को हो या जरूरत घर को हो तो फिर
बिना सोचे ही महिला फ़र्ज़ अपना बस निभाती हैं
हरारत सर्द खांसी बेअसर होते हैं महिला पर
ये करते काम हँसती और थोड़ा गुनगुनाती है
मैं अव्वल थी मैं अव्वल हूँ रहूंगी मैं सदा अव्वल
पुरुष को बात ये साबित हमेशा कर दिखाती है
कमल नौ रूप में जीकर बताती है कि हूँ दुर्गा
कोई जो आज़माए ज़ोर तो उसको मिटाती है।