बदली और आसमां
बदली और आसमां
बदली कभी नहीं चाहती
अपने आसुओं से आसमान का सीना भिगो दे
इसीलिए दुःख की गठरी ज्यों ज्यों भारी होती जाती है
वो दूर होती जाती है अपने प्रियतम से
काली स्याह वो बदली, नहीं चाहती
कि उसकी पीड़ा की कालिख़ से आसमां का रंग बदले
इसीलिए वो टूट कर बिखर जाना चाहती है
छिपकर किसी एकांत में
भले ही पता है उसे कि पिघलेगा दर्द उसका
प्रिय की बाहों में ही
वो जानती है कि
आसमां भी चाहता है उसको आलिंगन में लेकर
सारी ग्रंथियां खोल दे उसकी
और कर दे उसे मुक्त इस काली गठरी से
जो लाद रखी है उसने कुछ ऐसे कि
वो रुई के फाहों सी कभी उछलती कूदती बदली
आज काली स्याह हो गयी है
कितनी जद्दोजहद के बाद आख़िर
आसमां उतरा है उसकी ओर
और खींचकर, भींचकर जब सीने से लगाया है उसे
तब कैसी बरसी है बदली लगातार,
कई युगों की पीड़ा जैसे बहानी है आज
आसमां की छाती में
अब बदली नहीं है कहीं भी
उसने टूट कर ख़ुद को समा दिया है
अपने प्रियतम की बाहों में
पर आसमां अब भारी हो चला है
ना जाने क्यों......

