दीपशिखा सी उज्ज्वल हो तुम
दीपशिखा सी उज्ज्वल हो तुम


दीपशिखा सी उज्ज्वल हो तुम,
भासित जीवन करती हो।
तमस सकल जन हृदय का तुम,
प्रिये! हर पल हरती हो।
कांति मनोहर अति मनभावन,
निज मुख निर्मल धरती हो।
मोती सम तव दशन दमकते,
अधर खोल जब हँसती हो॥
देदीप्यमान हो मग पर जब भी,
मंद वेग से चलती हो।
जिनके भी हैं चक्षु लोकते,
चंचल चित तिन छलती हो।
चंचल चितवन लगते मधुवन,
मधुरस परम पिलाते हैं।
मान सौभाग्य जो मधुरस पीते,
मदमस्त हो मुस्काते हैं॥
भावभंगिमा अनुपम तन की,
चपला सरिस चमकती है।
वाणी अतिशय मिष्ट मोहती,
श्रवण मधुरस भरती है।
उज्ज्वलता झलके तन मन में,
उज्जवल जन मन करती हो।
हे उज्ज्वले! सकल जगत में,
उज्ज्वलता ही भरती हो॥