जीवन की सार्थकता
जीवन की सार्थकता
जनम-मरण की परिभाषा को,
सत्कर्म यहाँ झुठलाएगा ।
सत्कर्मों की नौका चढ़कर,
मनु भवसागर तर जाएगा ।।
काम्य-साम्य के बीच फँसी है,
निज सार्थकता इस जीवन की ।
लालच आखिर क्यों है तुझको,
इस नश्वर रूपी यौवन की ।
अंतकाल खुद रूप देख कर,
तू खुद पर ही पछताएगा ।।
सत्कर्मों की.... तर जाएगा ।।
इंद्रिय सारी लगी हुईं नित,
भोग-भाव की लोलुपता में ।
इनको तू ही बांध सकेगा,
सत्कर्मों की नैतिकता में ।
करो नियंत्रित चंचलता निज,
मन सार्थक राह दिखाएगा ।।
सत्कर्मों की.... तर जाएगा ।।
निर्विकार-निर्विघ्न घूमता,
कालचक्र यह इस जीवन का ।
स्थिरता का अस्तित्व कहाँ फिर,
तेरे-मेरे इस यौवन का ।
प्रारब्धवाद अपनाओ मनु,
खुद स्वर्ग द्वार खुल जाएगा ।।
सत्कर्मों की..... तर जाएगा ।।