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Dinesh Dubey

Classics

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Dinesh Dubey

Classics

स्त्री

स्त्री

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वो कोमलांगी मधुर वाणी से ,

होती है परिपूर्ण ,

वात्सल्य से भरपूर है वो,

ममता की मूरत है स्त्री।

जगत की जननी वो है ,

बिन स्त्री न होता जग का उद्धार,

एक तरह से सभी हैं जग में,

स्त्री के कर्जदार ।

मर्द चुका ना सकता कभी ,

उसके दूध का कर्ज ,

उसकी मानता के आगे ,

झुक जाता है ये संसार।

गर क्रोधित हो जाए स्त्री ,

बन दुर्गा करती संहार,

बन जाए गर वो पतीता,

डूबा देती हैं संसार।

स्त्री बिन जग नही चल सकता,

स्त्री बिन जीवन हो नही सकता,

स्त्री से ही घर परिवार ,

स्त्री बिन ना रहे संसार।



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