श्रीमद्भागवत- ३१२; तीन गुणों की वृत्तियों का निरूपण
श्रीमद्भागवत- ३१२; तीन गुणों की वृत्तियों का निरूपण
श्रीमद्भागवत- ३१२; तीन गुणों की वृत्तियों का निरूपण
भगवान कृष्ण कहते, उद्धव जी
प्रकाश होता प्रत्येक व्यक्ति में
अलग अलग गुणों का और
स्वभाव में भी भेद हो जाता उससे ।
शम, दम, तितिक्षा, विवेक, तप,सत्य
दया, स्मृति ,संतोष, त्याग, श्रद्धा
लज्जा, आत्मरति ,दान, सरलता आदि
ये सब सत्वगुण की वृत्तियाँ ।
इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा, ऐंठ
देवताओं से धन आदि की कामना
भेदबुद्धि, विषयभोग, यश में प्रेम
हास्य , प्राक्रम , हठपूर्वक उद्योग करना ।
ये सब रजोगुण की वृत्तियाँ हैं
और तमोगुण की ये वृत्तियाँ
क्रोध, लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा
याचना, शोक, मोह, पाखंड, श्रम करना ।
विषाद, दीनता, निद्रा,आशा और
भय , अकर्माण्यता आदि भी
मैं हूँ, ये मेरा है, इस बुद्धि में
मिश्रण ये तीनों गुणों का ही ।
मनुष्य जब संलग्न रहता है
धर्म, अर्थ और काम में
सत्वगुण से श्रद्धा , रजोगुण से रति
तमोगुण से धन की प्राप्ति होती उसे ।
सात्विक पुरुष की पहचान करे
मानसिक शक्ति, जितेंद्रियेता आदि गुणों से
कामना आदि से रजोगुणी पुरुष की और
तमोगुणी पुरुष की क्रोध, हिंसा आदि से ।
पुरुष हो या स्त्री हो
जब वह निष्काम होकर अपने
कर्मों द्वारा मेरी आराधना करे तब
सत्वगुणी जानना चाहिए उसे ।
सकाम भाव से अपने कर्मों द्वारा
मेरा पूजन करे वह रजोगुणी
और तमोगुणी पूजा करे अपने
शत्रु आदि की मृत्यु के लिये ।
सत्व, रज, तम तीनों गुणों का
कारण चित ही है जीव का
और इन सब गुणों से
कोई सम्बन्ध नहीं है मेरा ।
इन्हीं गुणों के द्वारा जीव शरीर और
आसक्त होता धन आदि में
बंधन में पड़ जाता है
मनुष्य इस असत्य संसार के ।
सत्वगुण प्रकाशक, निर्मल, शांत है
रजोगुण, तमोगुण को दबाकर जब
बढ़ता है तो सुख,धर्म इत्यादि का
भाजन हो जाता है तब ।
रजोगुण भेद बुद्धि का कारण है
उसका स्वभाव है आसक्ति में प्रवृति
तमोगुण, सत्वगुण को दबाकर
जब उसकी है बढ़ती होती ।
उस समय मनुष्य दुख, कर्म यश और
लक्ष्मी से संपन्न है होता
तमोगुण का स्वरूप अज्ञान है
स्वभाव है आलस्य, बुद्धि की मूढ़ता ।
सत्वगुण और रजोगुण को दबाकर
जब तमोगुण है बढ़ता
तब प्राणी तरह तरह की
आशाएँ कर शोक, मोह में पड़ता ।
हिंसा करने लगता है अथवा
निद्रा, आलस्य के वशीभूत हो जाता
और तमोगुण के कारण ही
इन सब में वो पड़ा रहता ।
जब चित प्रसन्न हो, इंद्रियाँ शांत हों
देह निर्मल, आसक्ति ना हो मन में
सत्वगुण की वृद्धि हो रही
ऐसी दशा में समझनी चाहिए ।
सत्वगुण साधन मेरी प्राप्ति का
और जब कर्म करने वाले जीव की
बुद्धि चंचल, ज्ञानेन्द्रियाँ असंतुष्ट
कर्मेन्द्रियाँ विषययुक्त, मन में भ्रांति ।
और शरीर अस्वस्थ हो गया हो
तब समझना चाहिए ये कि
रजोगुण ज़ोर पकड़ रहा है
इस की हो रही है वृद्धि ।
तब चित ज्ञानेंद्रियों द्वारा
शब्ददादि विषयों को समझ ना सके
मन खिन्न , विषाद अज्ञान की वृद्धि हो
तमोगुण की वृद्धि समझनी चाहिए ।
सत्वगुण बढ़ने पर देवताओं का
बढ़ने पर रजोगुण के असुरों का
और बढ़ने पर तमोगुण के
बल बढ़ जाता राक्षसों का ।
वृत्तियों में भी प्रधानता हो जाती
अधिकता से सत्वादि गुणों की
क्रमश देवत्व, असुरत्व, राक्षसतव प्रधान
निवृत्ति, प्रवृति अथवा मोह की ।
सत्वगुण में जागृत अवस्था
स्वप्न अवस्था रजोगुण से
और सुषुप्ति अवस्था जो
होती हैं वो तो तमोगुण से ।
तूरीय इन तीनों में ही
एक सा व्याप्त है रहता
और वो ही शुद्ध है और
है वो ही एकरस आत्मा ।
वेदों के अभ्यास में तत्पर
ब्राह्मण सत्वगुण के द्वारा ही
ऊपर के लोकों में जाते और
तमोगुण से मिलती अधोगति ।
इससे वृक्षादि पर्यंत जन्म मिले
रजोगुण से मनुष्य शरीर मिलता
मृत्यु हो सत्वगुण की वृद्धि के समय तो
स्वर्ग उसको है प्राप्त होता ।
रजोगुण की वृद्धि में मरण हो
मनुष्य शरीर मिलता है उसे
तमोगुण की वृद्धि के समय मरे जो
प्राप्त होता नर्क है उसे ।
परंतु उद्धव जी, जो पुरुष
त्रिगुणातीत - जीवनमुक्त हो गये
उन्हें मेरा धाम है मिलता
प्राप्ति होती है मेरी उन्हें ।
जब अपने धर्म का आचरण
मुझे समर्पित करके किया जाता
निष्काम भाव से ही किया जाये
तब वह है सात्विक होता ।
जिस कर्म के अनुष्ठान में
कामना रहती है किसी फल की
वह राजसिक होता है और
तामसिक होता है जिसमें कि ।
किसी को सताने अथवा
दिखाने आदि का भाव है रहता
और वो ज्ञान तो सात्विक ही है
जो होता है शुद्ध आत्मा का ।
राजस ज्ञान उसे कर्ता, भोगता समझना
शरीर समझाना उसे सर्वथा तामसिक है
इन तीनों में विलक्षण मेरे स्वरूप का
वास्तविक ज्ञान निर्मल ज्ञान है ।
वन में रहना सात्विक निवास है
राजस है गाँव में रहना
जुआघर में रहना तामसिक है
निर्गुण निवास मेरे मंदिर में रहना ।
अनासक्त मन से कर्म करने वाला सात्विक
राजसिक रागांध होकर कर्म करने वाला
विचार से रहित होकर जो करे तामसिक
निर्गुण, जो मेरी शरण में रहकर करता ।
आत्मज्ञाननिश्यक सात्विक श्रद्धा है
राजस है कर्मनिष्यक श्रद्धा
अधर्म में होती तो वो है तामस
और निर्गुण, मुझमें जो श्रद्धा ।
आरोग्यदायक, पवित्र और अनायास प्राप्त
सात्विक है भोजन वही
रसेंद्रियों को रुचिकर और स्वाद की
दृष्टि में युक्त आहार, है राजस वही ।
तथा जो दुखदाई और अपवित्र है
उस आहार को तामस कहते
और सुख वो सात्विक है
जो प्राप्त हो अंतर्मुखता से ।
बहिर्मुखता, विषयों से प्राप्त हो जो
राजस है वह सुख तो
और तामस सुख कहते उसको
अज्ञान और हीनता से प्राप्त हो ।
और जो सुख मुझसे मिलता है
गुणातीत और अप्राकृत है वो
द्रव्य, देश, , काल, ज्ञान, कर्म
त्रिगुणात्मक हैं ये सभी तो ।
कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, शरीर और निष्ठा
त्रिगुणात्मक हैं शरीर और निष्ठा भी
भाव वो सभी गुणमय हैं
पुरुष और प्रकृति के आश्रित जितने भी ।
वे चाहे नेत्रादि से अनुभव किए गए
शास्त्रों के द्वारा सुने गये हों
सोचे विचारे गये बुद्धि के द्वारा
गुणमय ही कहेंगे इनको ।
जीवों को जितनी भी योनियाँ
या गतियाँ प्राप्त हैं होतीं
वो सब की सब होतीं हैं उनके
गुणों और कर्मों अनुसार हीं ।
सब गुण चित्त से संबंध हैं रखते
इसलिए जीव जीत सकता इन्हें
जीव जो विजय प्राप्त करे इनपर
परितिष्ठित होता है मुझमें ।
और अन्ततः मेरा स्वरूप जो
प्राप्त कर लेता मोक्ष वो
दुर्लभ है मनुष्य शरीर ये
इससे ही तत्वज्ञान की प्राप्ति हो ।
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए
इसे पाकर मेरा भजन करे
वो सत्वगुण के सेवन से
राजोगुण, तमोगुण को जीत ले ।
इंद्रियों को वश में करके
समझ ले मेरे स्वरूप को
मेरे भजन में लग जाये
छोड़ दे सब आसक्तियों को ।
चितवृत्तियों को शांत कर फिर
विजय प्राप्त करे सत्वगुण पर भी
गुणों से मुक्त हो इस तरह
छोड़ दे वो जीव भाव को ही ।
मुझमें एक हो जाता ऐसे
और मुझ ब्रह्म की अनुमति से
एकत्वदर्शन से पूर्ण हो जाये
फिर ना जाता किसी भी विषय में ।