श्रीमद्भागवत -१७९;राजा त्रिशंकु और हरिशचंद्र की कथा
श्रीमद्भागवत -१७९;राजा त्रिशंकु और हरिशचंद्र की कथा
श्री शुकदेव जी कहें, परीक्षित
अम्बरीष मान्धाता के श्रेष्ठ पुत्र थे
पुत्र रूप में स्वीकार किया उसे
उसके दादा युवनाशन ने।
उनका पुत्र यौवनाशन और
हरित पुत्र यौवनाशन के
अवान्तर गोत्रों के प्रवर्तक हुए
तीनों ये मान्धाता के वंश में।
वासुकि ने अपनी बहन का विवाह
मान्धाता पुत्र पुरुकुत्स से कर दिया
अपने पति को रसातल में ले गयी
वासुकि की आज्ञा से नर्मदा।
वहां भगवान् की शक्ति से संपन्न हो
मार डाला था पुरुकुत्स ने
वध करने योग्य गंधर्वों को
इससे नागराज प्रसन्न हुए।
प्रसन्न हो उन्होंने कहा पुरुकुत्स को
कि जो मनुष्य भी इस प्रसंग को
स्मरण करेगा प्रेमभाव से
निर्भय हो जाये सांपो से वो।
पुरुकुत्स का पुत्र त्रसद्दस्यु हुआ
अनरण्य हुआ उसका पुत्र
अनरण्य के हर्यशव हुए
उनके पुत्र हुए थे अरुण।
अरुण के पुत्र त्रिबंधन थे
सत्यव्रत पुत्र त्रिबंधन के
यही सत्यव्रत विख्यात हुए थे
फिर त्रिशंकु के नाम से।
यद्यपि त्रिशंकु चांडाल हो गए
पिता और गुरु के शाप से
परन्तु विश्वामित्र के प्रभाव से
सशरीर स्वर्ग को चले गए।
देवताओं ने धकेला वहां से
नीचे की और सिर किये गिर पड़े
आकाश में ही स्थित कर दिया
विश्वामित्र ने तपोबल से उन्हें।
हरिशचन्द्र त्रिशंकु के पुत्र थे
विश्वामित्र और वशिष्ठ उनके लिए
एक दुसरे को शाप दे पक्षी हुए
बहुत वर्षों तक वो लड़ते रहे।
हरिशचन्द्र के संतान न थी कोई
इससे उदास रहा करते वे
वरुण जी की शरण में गए
उपदेश से वो नारद जी के।
प्रार्थना की वरुण जी को उन्होंने
प्रभु, मुझे पुत्र प्राप्त हो
उसीसे आपका यजन करूंगा
आप मुझे वीर पुत्र दो।
वरुण जी ने कहा '' ठीक है ''
और तब उनकी कृपा से
हरिशचन्द्र को प्राप्ति हुई
पुत्र की, रोहित नाम के।
पुत्र होने पर वरुण ने
आकर कहा, हरिशचन्द्र तुम्हे
पुत्र प्राप्त हो गया अब
मेरा यज्ञ करो तुम इससे।
हरिशचन्द्र कहें, जब ये यज्ञ पशु
रोहित दस दिन से अधिक का होगा
तभी यज्ञ के योग्य होगा
तभी मैं इससे यज्ञ करूंगा।
दस दिन बाद वरुण जब आये
हरिशचन्द्र कहें, कि यज्ञ पशु ये
यज्ञ के योग्य तभी हो
जब दांत निकल आएंगे।
दांत निकले तब फिर वरुण आ गए
टालमटोल की फिर राजा ने
कहें, योग्य होगा ये यज्ञ के
इसके दांत जब टूट जायेंगे।
दूध के दांत गिर जाने पर भी
हरिशचंद्र जी कहें वरुण को
दोबारा दांत जब आ जायेंगे
यज्ञ पशु तब यज्ञ के योग्य हो।
दोबारा दांत आने पर वरुण जी
फिर जब पास आये राजा के
कहें, क्षत्रिय पशु यज्ञ के योग्य हो
जब वो कवच धारण करने लगे।
हे परीक्षीत, हरिशचंद्र इस तरह
छलते रहे वरुण को, पुत्र प्रेम में
मेरा बलिदान पिता करना चाहते
रोहित को जब पता चला ये।
तब प्राणों की रक्षा के लिए अपने
हाथ में धनुष लिए वन में चले गए
कुछ समय बाद पता चला, रुष्ट हो
आक्रमण किया पिता पर, वरुण ने।
जिसके कारण महोदर रोग से
पिता थे पीड़ित हो रहे
तब नगर की और चल पड़े
पर रोक लिया उनको इंद्र ने।
कहा, ''रोहित, यज्ञ पशु बनकर
मरने से तो अच्छा ये
कि पवित्र तीर्थ क्षेत्रों का
इस पृथ्वी पर विचरण करें ''।
इंद्र की बात मानकर रोहित
छह वर्ष तक वन में ही रहा
सातवें वर्ष जब वह अपने
नगर की और था जाने लगा।
उसने अनिगर्त के मंझले पुत्र
शुनःशेप को था मोल ले लिया
और यज्ञ पशु बनाने के लिए
उसको फिर पिता को सौंप दिया।
महोदर रोग से छूटकर
पुरुषमेघ यज्ञ द्वारा राजा ने
वरुण और देवताओं का यजन किया
विश्वामित्र होता उस यज्ञ के।
जमदाग्नि ने अधर्वयु का काम किया
ब्रह्मा बने थे वशिष्ठ जी
उदगाता बने अयास्य मुनि
प्रसन्न हुए उससे इंद्र भी।
इंद्र ने राजा हरिशचन्द्र को
एक सोने का रथ दिया था
आगे चलकर विश्वामित्र ने प्रसन्न हो
उन्होंने एक उपदेश दिया था।
उस ज्ञान का उपदेश दिया उन्हें
जिसका कभी नाश न हो
बंधनो से मुक्त हो गए थे राजा
अपने उस स्वरुप में स्थित हो।
जो किसी प्रकार बतलाया न जा सके
और उसके सम्बन्ध में भी
किसी प्रकार का कोई
अनुमान किया जा सकता नहीं।