पगडंडी से सागर पार
पगडंडी से सागर पार
पग दंडी से सागर पार
यह है हिन्दी का विस्तार
भारत की है यह राष्ट्र भाषा
पर दुनिया के कंठ का हार
गीत कहानी महाकाव्य से
इसका भरा हुआ है भंडार
इसके सागर में डूबे तो
पाएंगे हम अद्भुत संसार
तुलसी सुर शुभद्रा सबने
इसमें गढ़ाअपना हीरक हार
दिनकर पंत निराला जी से
यह चोटी पर हो गयी सवार
हरिश्चंद्र जी इस भाषा के
सबसे पहले है सूत्रधार
इसकी महिमा गूंज रही है
दिग दिगंगत मे पार
इसकी मान बढ़ाएँगे हम
रचनाओ मे दे कर सार
विश्व झुकेगा चरण पे इसके
पाएगा तब नव रस धार।