बेटियाँ
बेटियाँ
चढ़ी जा रही सभी चोटियाँ
घर घर की मासूम बेटियाँ
बेटों से कमतर नहीं अब वो
अब न सेकती घरों मे रोटियाँ
माँ के आँखों का सपना है
वृद्ध पिता की लाठीया
समझो न कमजोर इन्हें अब
अब समाज की बंद मुट्ठियाँ
जितना इन्हे जलाया हमने
उतनी प्रखर हुई दृष्टियाँ
इनके बढ़ते कदम न रोको
वरना धूमिल होंगी सृष्टियाँ।
