कैसे राम गए तुम वन को
कैसे राम गए तुम वन को
कैसे राम गए तुम वन को
दग्ध कर गए तुम उपवन को
उधर पड़े थे मूर्छित बाबुल
इधर थी माताएँ शोकाकुल
हृदयहीन हो गए कहाँ से
छोड़ा कैसे राजभवन को
कैसे राम गए तुम वन को
मग के पादप सब मुरझाए
सुख गयी सब वृक्ष लताएँ
गौ-हिरणों ने भर ली थी
आँसुओं से अपने नयन को
कैसे राम गए तुम वन को
पग न बढ़ा पते थे घोड़े
बरसे उनपर कितने कोड़े
अपने स्वामी राम चन्द्र को
कैसे छोड़े निर्जन वन को
कैसे राम गए तुम वन को
तुमने तो कर्तव्य निभाया
जीवन में सबके तम छाया
सुनी हो गयी थी पुर की गलियाँ
प्राणहीन कर गए जन जन को
कैसे राम तुम गए वन को
दिन को रात बदल कर डाला
रात हुई अति और विकराला
दिवस रात मातम में बीते
मिली प्रखरता हर क्रंदन को
कैसे राम गए तुम वन को
एक दिवस गर देर लगाते
कैकेयी माँ का मन भरमाते
व्याकुलता को देख बदल देती
वे अपनी कटु वचन को
कैसे राम गए तुम वन को
