कविता अग्नि बिन भोजन नहीं
कविता अग्नि बिन भोजन नहीं
अग्नि है यह देखो
अग्नि के रूप निराले हैं
कहीं करती उजाले तो
कहीं जला देती कारखाने है
अग्नि परीक्षा दी सीता ने भी
यह तो पवित्रता की मूरत है
यह बुराई का नाश करती
सत्य की सूरत है
वरदान होने पर भी
होलिका को जला देती है
बचाकर पहलाद को
अग्नि सच का साथ देती है
अग्नि बिन भोजन नही
इस बिन हवन संपन्न नहीं
दो रिश्तो को बांधती
इसके बिन सात फेरे नहीं
क्रोध की अग्नि भड़के जब
शांत न वो होती है
कर देती रिश्तो को खाक
अपनों को अलग कर देती है
मरने के बाद भी इंसान की
मुक्ति अग्नि से ही होती है
अग्नि से ही शुरू होती
अग्नि पर ही खत्म होती
हम लोगों की जिंदगी।
