।। अभिमन्यु की व्यथा ।।
।। अभिमन्यु की व्यथा ।।
ढलने को थी शाम की लाली,
आगे गहन रात थी काली,
चक्रव्यूह में वीर घिरा था,
महाभारत का युद्ध छिड़ा था,
कोई युक्ति थी काम न आती,
जो वक़्त बुरा मति फिर फिर जाती,
गहन चक्र में जूझ रहा था,
जीवन का रास्ता बूझ रहा था ।।
ओ माँ उस दिन तुम ना सोती,
तो ये विपदा आज नहीं होती,
जो हल सारा तुम सुन पातीं,
आज विजय गीत तुम गातीं,
पर फिर क्या मैं ये कह दूं,
अब सारा ही दोष तुम्हारा है,
तेरी निद्रा ही थी कारण क्या,
जिस से ये अभिमन्यु हारा है ।।
नहीं नहीं माँ ये सत्य नहीं ,
कुछ करती है ये भ्रमित कहानी,
अभिमन्यु का सत्य नहीं ये,
उसकी व्यथा न जग ने है जानी,
माँ ने तो तब उत्पत्ति समय ही,
अपना सब मुझ को ज्ञान दिया,
मैं अबोध बस झूमा उस पर ही,
निज कौशल पर ना ध्यान दिया।।
माना माँ सोई थी कुछ क्षण को,
तो उसने कुछ ज्ञान नहीं पाया,
पर मैं भी तो अपनी तरुणाई में,
न उस को क्यों पूरा कर पाया,
ये चक्रव्यूह इस दुनिया के जैसा,
जिस में चलना माँ सिखलाती,
जितना उसने सीखा अनुभव से,
वो उतना सब कुछ बतलाती है ।।
हर इस चक्रव्यूह में से होकर,
खुद अभिमन्यु को ही बाहर आना है,
निज हार न थोपो औरों पर,
ये बस झूठा एक बहाना है,
हम सब में एक अभिमन्यु है,
जो जीवन चक्र में फंसा हुआ,
ये अर्धज्ञान है कौरव दल सा,
इस दलदल में बस धंसा हुआ ।।
तोड़ चक्रव्यूह अब इस युग में,
इस अभिमन्यु को आना होगा,
फिर ना माता पर आक्षेप लगे,
उस भ्रम को बस झुठलाना होगा,
तो माँ तुझ से इस संचित ज्ञान से,
ये अभिमन्यु प्रण अब करता है,
चाहे व्यूह रचें शत्रुदल कितने,
ये अभिमन्यु अब ना मरता है,
ये अभिमन्यु अब ना मरता है।।