वापसी
वापसी
चल पड़े वो राहें
पटरी भी चल पड़ी
ये जमीं जमीं न रही
चल पड़ी है आसमान
खींच रहा है वो बादल
पुकारता है दहलीज़
फिर घर वापसी की।
पार होते होते सरहद
सभी हदें पार कर गये
खींच ली सारे अस्क
मिट्टी और आंखों के
थोड़ी आशा मुनाफ़ा का
भर दिये ख़्वाब अनेक
इंतज़ार वापसी का।
फर्क किसी को नहीं
न फक्र थी कभी
बस चले थे गठरी
भरे उम्मीदें अनेक
उम्मीद आज भी कायम है
फिर एक नए अध्याय की
चाहे साथ न दे
जमीं आसमान व रास्ते
ठान लिए हम वापसी
मंजिल का तो पता नहीं।
