परछाइयाँ
परछाइयाँ
निकले जो सफर में,
तो खुदसे अंजान बन कर रहा करते थे,
कुछ पाने की लाालसा में,
खुदको खुदसे दूर रखा करते थे
जब एक सफल मकाम पा लिया था,
तब लगने लगा कि खुदको तो गवाह रखा था
एक खुदहिसे इश्क़ करना था, वो भी ना हो सका,
मेरी परछाइयों के सिवाह, मेरा कोई न हो सका
दिल गुमसुम सा होकर, उदास सा बैठा था
कुछ पल रोया, फिर हौले से मुस्काया,
मसला सुलझा सा नज़र आने पर,
दिल को फिर से समझाया
और बात तो समझ आनी ही थी,
खुदकी जीत जो उसे प्यारी भी थी
जब समझ आयी हर बात दिल की,
तब नज़र आई परछाईं खुदकी,
जब तलााश में थी अपनों की,
राह मिली बस अपने सपनों की
ना किसी की परछाईं साथ आयी,
ना किसी की दुआ साथ आयी
तो समझ आया कि राह मेरी है,
तो साफर भी मेरा ही होगा
चाहे कितना भी गिरूँ, सम्भलना भी मुझे होगा,
कितनी ही धूप हो, कितनी ही छाँव हो,
कितने ही मौसम बदले, कैसी भी राह हो,
डरना किस बात का है, जब कोई हो ना हो,
लेकिन खुद की परछाइयााँ खुद के साथ हो।
