बहस
बहस
आत्महत्या और ज़िन्दगी में आज बहस हो गई
दोनों आज एक दुसरे से ख़फा हो गई
आत्महत्या ने बड़े ही इतराते अंदाज़ में कहाँ
जब सबका अंत मौत ही है तो,
मैं सबको एक सरल मार्ग देती हूँ वहाँ पहुँचने का
क्यों सब इतना तेरी मुश्किलों से गुज़रे
और रोते-रोते तुझे झेले, तुझ को गाली दे
मैं दोनों की परेशानियों को हल कर देती हूँ
फिर भी सब मुझे भला बुरा कहते है
जिसको कोई नहीं अपनाता मैं उसे
अपनापन देती हूँ
जो यहाँ अकेला है मैं उसे दोस्त बना लेती हूँ
इस बात पर ज़िन्दगी मुस्करा कर वहाँ से चल दी
और जाते-जाते मेज़ पर एक खत रख गई
खत में लिखा था कि तू उन्हें अपनापन तब देती है
जब वो मेरे से रूठ जाते है,
नहीं तो उनके साथ हमेशा से ही मैं ही तो रही
मैंने उनका बचपन देखा और उनकी जवानी देखी
उनका आँगन देखा उनका परिवार देखा
वो चंद लम्हों कि मुझसे नाराज़गी
उन्हें तेरे करीब ले आती है
और हाँ ऐसा नहीं है कि मैं तुझ से डर कर
यहाँ से जा रही हूँ
कहीं इस बीच तू किसी और को
अपना दोस्त न बना ले बस यही
तय करने जा रही हूँ।