घर का आँगन
घर का आँगन
वो गाँव के घर का आँगन आज भी बुलाता है मुझे
पर ज़िम्मेदारियाँ थाम लेती है बढ़ते कदम
चार पैसों और अच्छी ज़िन्दगी की तलाश में
मारे-मारे फिरते है शहर की धूल में
वो आँगन में आम का पेड़ आज भी खड़ा है
वो नदी आज भी गाते-गाते बहती है
सुना है जंगल आज भी ख़ामोश है
पर शहर में बहुत शोर है
शहर में सब सुख सुविधा है
पर वो घर का आँगन वाला प्यार नहीं है
जिस दिन ये ज़िम्मेदारियों का बोझ उतर जायेगा
शायद उस दिन में गाँव के आँगन में लौट आऊँगा।