ख़्याल इश्क़ का!
ख़्याल इश्क़ का!
इश्क़ में
कसमें-वादे होते हैं
और फिर
टूट जाते हैं।
फिर से ख़्याल
हो आया।
फिर से
इश्क़ हुआ।
पर कसमें-वादे
ना हुआ।
"इश्क़" में मैं
"तुम" बन जाऊँ
और तुम
"तुम" ही रहो।
"ख़्याल" रखना
बस इश्क़ का
तुम "मैं"
ना बन जाना
और मैं
"मैं" ना हो जाऊँ।

