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निशान्त मिश्र

Abstract Tragedy

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निशान्त मिश्र

Abstract Tragedy

गोबर के पथे हुए उपले

गोबर के पथे हुए उपले

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कई वर्षों से देख रहा हूं,

गोबर के पथे हुए उपलों को,

वो जलते हैं, अपनी ऊर्जा से,

अग्नि, बेशक, कोई और देता है,

पकाने के लिए, खुद का भोजन!!


थाप, और ताप, यही जीवन है

उन, बिसारे हुए, गोबर के, उपलों का

निस्तार, बहाए हुए, गिराए हुए

उपलों का, यही जीवन है, तुम क्या जानो!!


तुम को, बस खाना, बनाना है, उन उपलों से

क्या जानो, किस प्रेम से, उपजे हैं

वो उपले, तुम जला रहे हो जिनको धूं धूं

तुम तो उस धुएँ से भी, आँख छिपाते हो!!


कौन होते हो तुम, उनको जलाने वाले

वो तो पहले से ही, तपे बैठे हैं,

कम से कम, आँख तो मिला लो उनसे

वो जल रहे हैं, तुम को जिलाने के लिए!!



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