इंतजार और वियोग
इंतजार और वियोग
किसी के इंतजार, वियोग और तड़प में स्त्री
अच्छा खासा वक्त देकर इंतजार कर सकती है !
इस अटूट चाहत में उसकी आंसुओं और रुलाई के
धारासार से एक महासागर तक निर्मित हो सकता है !
लेकिन जब वह अपने विगत प्रेम व अतीत को भुलाती है
तो समझिए उसका कायान्तरण ही हो गया हो।
स्त्री को संसार के भीतर इस संसार के स्मृतिशास्त्र,
समाजशास्त्र व धर्मशास्त्र के अनुरूप सर्वाधिक एडजस्ट करना होता है
इसीलिए वह इतना ऐंद्रजालिक रूप रखती हैं।
अगर वह भी आत्म-ध्वंस का वही देवदासीय प्रपन्च अपनाने,
बिताने लगे तो जीवन व संसार को तमाशा बनते देर न लगेगी।
वह 'पारो' के रूप में आ सकती है लेकिन उसकी मर्यादा वह देहरी है
जिसके बाहर नहीं उसके भीतर ही उसके आंसुओं का सैलाब उमड़ते घुमड़ते
उसके हृदय को नमकीन बनाता खाक करता गलाता चला जाता है।
तेजाब से ज्यादा तीक्ष्ण हैं उसके आँसू।
स्त्री संसार चक्र की स्वामिनी है।
उसे सभ्यता व जीवन को नवता, पुनर्जन्म देते ही रहना है।
वह कभी गतिहीन नहीं हो सकती। गतिमयता उसका स्वभाव है।
पुरुष जड़, स्थिर कोल्हू हो सकता है लेकिन स्त्री उर्वरा धरती है
चाहे भी तो ठूँठपन नहीं अपना सकती।
